क्या पीसीसी चीफ बनने पर भी चुनाव लड़ेंगे सचिन पायलट?

इन दिनों अजमेर के लोगों, विशेष रूप से राजनीति में रुचि रखने वाले नागरिकों व कार्यकर्ताओं-नेताओं में यह सवाल चर्चा में है कि क्या अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी अजमेर से चुनाव लड़ेंगे? ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ दिन से पायलट को विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से पराजित कांग्रेस का पुनरुद्धार करने के लिए प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दिए जाने की चर्चा जोरों पर है। हालांकि प्रदेश अध्यक्ष पद के कुछ और दावेदारों के नाम भी आए, मगर अधिसंख्य समाचार पत्रों का अनुमान है कि सचिन को ही यह जिम्मेदारी दी जा रही है। ऐसे में यह सवाल भी स्वत: ही उठ रहा है कि ऐसे में क्या वे अजमेर से लोकसभा चुनाव भी लड़ेंगे? सवाल वाजिब भी है। आज कांग्रेस की जैसी स्थिति है, उसे संवारने और प्रदेश की पच्चीसों सीटों पर प्रत्याशियों का चयन और उनके लिए चुनावी रणनीति बनाना ही अपने आप में बहुत बड़ा टास्क है। किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए इतने बड़े टास्क के साथ-साथ खुद की सीट पर भी पूरा ध्यान देना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। इसकी वजह ये भी है कि हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में अजमेर संसदीय क्षेत्र की आठों सीटों पर कांग्रेस के हारने के बाद यहां से चुनाव लडऩा बेहद चुनौतीपूर्ण है। यदि आंकड़ों की बात करें तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व भाजपा को मिले वोटों में तकरीबन दो लाख का फासला है। उसे पाट कर जीत दर्ज करने के लिए कांग्रेस प्रत्याशी को एडी चोटी का जोर लगाना होगा। अन्य संभावित स्थानीय दावेदारों की तुलना में सचिन जैसी सेलिब्रिटी के लिए भले ही यह असंभव न हो, मगर दुष्कर जरूर है। यूं पूर्व भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत के पांच टर्म की तुलना में एक ही टर्म में अच्छा परफोरमेंस देना उनके पक्ष में जाता है और जनता भी मानती है कि ठहरे हुए शहर व जिले को विकास की ओर उन्मुख किया है, मगर इतना तो तय है कि यहां से जीतने के लिए सचिन को पूरी ताकत लगानी होगी। विशेष रूप से इस वजह से भी कि यहां कांग्रेस संगठन की स्थिति ठीक नहीं है। विधानसभा चुनाव के दौरान भी मनमुटाव बढ़ा है। ऐसे में साथ ही प्रदेश कांग्रेस की जिम्मेदारी का निर्वहन करना कठिन ही है। वैसे भी उन्हें यदि प्रदेश की जिम्मेदारी दी जाती है तो स्वाभाविक रूप से उनसे ये उम्मीद की जाएगी कि वे लोकसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति सुधारने के अतिरिक्त आगामी विधानसभा चुनाव तक पार्टी को फिर भाजपा की टक्कर में ला खड़ा करें। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो यह भी स्वाभाविक है कि वे ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे। प्रदेश के कुछ मसलों पर उनकी भी भागीदारी को देखते हुए राजनीतिक पंडित यह अनुमान पहले से लगाते रहे हैं कि उन्हें प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए तैयार किया जा रहा है।
बहरहाल, अब ये तो कांग्रेस हाईकमान और खुद सचिन को ही निर्णय करना है कि एक साथ दो टास्क हाथ में लेते हैं या नहीं, मगर आम जन में तो यह चर्चा है ही क्या पीसीसी चीफ बनने पर वे अजमेर से चुनाव लड़ेंगे अथवा नहीं?

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चतुर्वेदी लायक ही नहीं थे अध्यक्ष पद के

Imageराजस्थान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार कर निवर्तमान अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने सभी को चौंकाया है। पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि ऐसा उन्होंने कैसे किया? क्या वे हाईकमान की किसी रणनीति का शिकार हुए हैं? क्या वे स्वयं वसुंधरा की टीम के शामिल होना चाहते थे? या वसुंधरा उन्हें अपनी छतरी के नीचे लाना चाहती थीं? अगर उनको टीम में शामिल होने का ऑफर था तो भी उन्होंने उसे स्वीकार करने से पहले सौ बार सोचा क्यों नहीं? क्या उन्हें अपने पूर्व पद की मर्यादा व गौरव का जरा भी भान नहीं रहा? अपनी पहले ही प्रतिष्ठा का जरा भी ख्याल नहीं किया? क्या वे इतने पदलोलुप हैं कि अध्यक्ष के बाद उपाध्यक्ष बनने को उतारू थे? ये सारे सवाल भाजपाइयों के जेहन में रह-रह कर उभर रहे हैं।
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अभी हाल तक अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह भला किसी और की अध्यक्षता वाली कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? इससे एक शक और होता है, वो ये कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया। वे थे तो उपाध्यक्ष पद का टैग लगाने योग्य, मगर गलती से पार्टी ने उन पर अध्यक्ष का टैग लगा रखा था। असल में उन्होंने संस्कृत की स्वजाति द्रुतिक्रमा वाली कहानी को चरितार्थ कर लिया, जैसे एक चूहा विभिन्न योनियों के बाद आखिर चूहा पर बन कर ही संतुष्ट हुआ। अध्यक्ष रह चुकने के बाद भी उन्हें उपाध्यक्ष बन कर ही संतुष्टि हुई। और वह भी उसके नीचे, जिसे टक्कर देने के लिए उन्हें खड़ा किए रखा गया। आत्म समर्पण की इससे बड़ी मिसाल कहीं नहीं मिल सकती। धरातल का सच भी ये है कि उन्हें वसुंधरा की जिस दादागिरी को समाप्त करने और उन पर नियंत्रण करने का जिम्मा दिया गया था, उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई। जब-जब वसुंधरा को दबाने की कोशिश की गई, वे बिफर कर इस्तीफों की राजनीति पर उतर आईं, मगर पार्टी हाईकमान उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का उपाध्यक्ष बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों।
-तेजवानी गिरधर

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वसुंधरा से ज्यादा अपनों की बेवफाई से दुखी हैं तिवाड़ी

Imageबुरी तरह से रूठे भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी ने देव दर्शन यात्रा की शुरुआत के दौरान जिस प्रकार नाम लिए बिना अपनी ही पार्टी के कई नेताओं पर निशाना साधा, उससे साफ है कि वे नई प्रदेश अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से तो पीडि़त हैं ही, वसुंधरा के खिलाफ बिगुल बजाने वालों के साथ छोड़ जाने से भी दुखी हैं।
वसुंधरा का नाम लिए बिना उन पर हमला बोलते हुए जब वे बोले कि राजस्थान को चरागाह समझ रखा है तो उनका इशारा साफ था कि उन जैसे अनेक स्थानीय नेता तो बर्फ में लगे पड़े हैं और बाहर से आर्इं वसुंधरा उनकी छाती पर मूंग दल रही हैं। वसुंधरा और पार्टी हाईकमान की बेरुखी को वे कुछ इन शब्दों में बयान कर गए-लोग कहते हैं कि घनश्यामजी देव दर्शन यात्रा क्यों कर रहे हैं? घनश्यामजी किसके पास जाएं? सबने कानों में रुई भर रखी है। न कोई दिल्ली में सुनता है, न यहां। सारी दुनिया बोलती है उस बात को भी भी नहीं सुनते।
अब तक वसुंधरा राजे खिलाफ मुहिम चलाने वाले साथियों पर निशाना साधते हुए वे बोले कि जिन लोगों ने गंगा जल हाथ में लेकर न्याय के लिए संघर्ष करने की बात कही थी, वे भी छोटे से पद के लिए छोड़ कर चले गए। उनका सीधा-सीधा इशारा वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष बने अरुण चतुर्वेदी व औंकार सिंह लखावत और नेता प्रतिपक्ष बने गुलाब चंद कटारिया की ओर था। इसकी पुष्टि उनके इस बयान से होती है कि मेरे पास भी बहुत प्रलोभन आए हैं, पारिवारिक रूप से भी आए हैं, अरे यार क्यों लड़ते हो, आपके बेटे को भी एक टिकट दे देंगे। आप राष्ट्रीय में बन जाओ, उसे प्रदेश में बना दो। हमारी पारिवारिक लड़ाई नहीं है, हजारों कार्यकर्ताओं की लड़ाई है, जो सत्य के लिए लड़ रहे हैं। वे कार्यकर्ताओं की हमदर्दी भुनाने के लिए यह भी बोले कि जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं।
खुद को मानते हैं संस्कृति का पोषक
तिवाड़ी ने खुद को और नेताओं से ऊपर बैठाते हुए कहा कि हम विधायक दल की बैठक में बैठे थे, हमें सूचना दी गई कि राज्यपाल विधानसभा में अंग्रेजी में भाषण करेगी, अपने को विरोध नहीं करना है। तब मैंने उसी समय खड़े होकर कहा था, कि 199 एमएलए भी पक्ष लेंगे तो तिवाड़ी हिंदी में भाषण कराएगा। समर्थन करेंगे तो भी तिवाड़ी हिंदी में भाषण की मांग करेगा। हम भाजपा में हैं, भाजपा में रहेंगे लेकिन कोई हिंदी और संस्कृति को समाप्त करने का कोई प्रयास करेगा, वह बर्दाश्त नहीं होगा। तब मैंने कहा था कि जिसको न निज देश का अभिमान है वह नर नहीं निरा पशु समान। अंग्रेजी पढ़ के सब गुण होत प्रवीण, निज भाषा ज्ञान के रहत हीन के हीन। हीन बनकर नहीं रहना चाहते। अर्थात भाजपा में अकेले वे ही बचे हैं, जिन्हें अपनी संस्कृति की पीड़ा है।
कांग्रेस के बराबर ला खड़ा किया
उन्होंने अपने उद्बोधन में भाजपा को कांग्रेस के बराबर ला खड़ा किया। शुचिता और सिद्धांतों की राजनीति करने वाली मौजूदा भाजपा पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि कोई कहे दाल में काला है, मैं तो कहता हूं इस राजनीति में तो पूरी दाल ही काली है। किसी भी पार्टी में जाकर देख लीजिए। जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं। जातिवाद का जहर फैलाया जा रहा है। यह सब क्यों किया जा रहा है?
एक पाटी के नेता ने कहा कि आप राजस्थान में कैसे हो, वो बोले एक घर राजस्थान में है, एक हिमाचल में। दोनों पार्टियों में यही स्थिति है। आजकल दोनों पार्टियों के नेताओं से पूछते हैं कि कितनी सीटें आएंगी तो कहते हैं 215 सीटें। 200 तो राजस्थान की है, बाकी प्रांतों से आने वाले 15 तो लाएंगे, यह स्थिति हो रही है राजस्थान की।
तब खुद भी तो चर रहे थे
उनके इस बयान पर खासा चर्चा हो रही है कि देव दर्शन में सबसे पहले जाकर भगवान के यहां अर्जी लगाऊंगा कि हे भगवान, हिंदुस्तान की राजनीति में जितने भी भ्रष्ट नेता हैं उनकी जमानत जब्त करा दे, यह प्रार्थना पत्र दूंगा। भगवान को ही नहीं उनके दर्शन करने आने वाले भक्तों से भी कहूंगा कि राजस्थान को बचाओ। राजस्थान को चारागाह समझ रखा है। सवाल उठता है कि जब वे राजस्थान को चरागाह समझने वालों के साथ चर रहे थे, तब उन्हें यह ख्याल क्यों नहीं आया कि राजस्थान लुटा जा रहा है?
-तेजवानी गिरधर

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मोदी को लेकर भाजपा दो राहे पर

जब से गुजरात चुनाव का प्रचार अभियान शुरू हुआ और उसमें नरेन्द्र मोदी ने हैट्रिक लगाई, एक जुमला सबकी जुबान पर है कि आगामी चुनावी राहुल बनाम मोदी होगा। यहां तक कि विदेशी पत्रिकाओं का भी यही आकलन है कि टक्कर तो इन दोनों के बीच ही होगी। यह आकलन एक अर्थ में तो ठीक था कि मोदी ही अकेले ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं, जो कि भाजपा में सबसे ज्यादा चमकदार व आकर्षक हैं, बाकी सारे नेता उनके आगे फीके हैं। यहां तक कि सुषमा स्वराज व अरुण जेटली भी उनके आगे कहीं नहीं ठहरते। वे हैं भले ही दमदार वक्ता और बेदाग, मगर उनके पास मोदी जैसा जनाधार नहीं है। मगर सवाल ये उठता है कि गुजरात के शेर मोदी राष्ट्रीय स्तर पर भी वैसी ही भूमिका अदा कर पाएंगे, जैसी कि उन्होंने गुजरात में बना कर दिखाई है? कहने को भले ही वे विकास के नाम पर जीते हैं, मगर उनकी जीत में हिंदूवाद की भूमिका ही अहम मानी जाती है, ऐसे में क्या राष्ट्रीय स्तर पर धर्म निरपेक्ष दल उन्हें स्वीकार कर पाएंगे? क्या भाजपा मोदी के कारण बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार सहित अन्य के एनडीए का साथ छोडऩे से होने वाले नुकसान को बर्दाश्त करने को तैयार होगी? क्या मोदी के नाम पर हिंदूवादी शिव सेना की इतर राय को नजरअंदाज कर दिया जाए? अव्वल तो क्या भाजपा के और नेता भी उन्हें आगे आने देने को तैयार होंगे? ये ऐसे सवाल हैं जो यह तय करेंगे कि आने वाले लोकसभा चुनाव की तस्वीर कैसी होगी।
दरअसल अधिसंख्य भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक सर्वाधिक चमकदार आईकन हैं। हिंदूवादी ताकतों की भी इच्छा है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने का इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा। पूर्व में इंडिया शाइनिंग का सर्वाधिक महत्वाकांक्षी नारा धूल चाट चुका है। इसके बाद मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में लाल कृष्ण आडवाणी को प्रोजेक्ट किया गया, मगर उनकी भी कलई खुल गई। यह सवाल तब भी उठा था कि भाजपा क्या करे? खुल कर हिंदूवाद पर कायम रहे या धर्मनिपेक्षता के आवरण में हिंदूवाद का पोषण करे? तकरीबन तीन साल बाद आज फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। संयोग से इस बार मोदी जैसा नेता उभर कर आया है, जिसकी पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने का दबाव संघ व विहिप बना रहे हैं। उनका मानना है कि अब आखिरी विकल्प के रूप में प्रखर हिंदूवाद के चेहरे मोदी सर्वाधिक कारगर साबित होंगे, जिनका सितारा इन दिनों बुलंद है। उनके चेहरे के दम पर भाजपा कार्यकर्ता में जोश आएगा और कम से कम हिंदीभाषी राज्यों में अकेले भाजपा की सीटों में इजाफा होगा। अगर आंकड़ा दो सौ सीटों को भी पार कर गया तो बाद में समान व अर्ध समान विचारधारा के अन्य दल कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए मजबूरन उनका साथ देंगे। एक तर्क ये भी है कि मोदी की वजह से भले ही एनडीए में टूटन आए अथवा गैर हिंदीभाषी राज्यों में सीटें कम हो, मगर इस नुकसान की भरपाई मोदी के नाम पर हिंदीभाषी राज्यों में मिली बढ़त से कर ली जाएगी। भाजपा हाईकमान भी इसी दिशा में सोच रहा है, मगर वह यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है, क्या यह प्रयोग कारगर होगा ही? कहीं ऐसा न हो कि भाजपा की सीटें तो कुछ बढ़ जाएं, मगर एनडीए कमजोर हो जाए और सत्ता हासिल करने का सपना फिर धूमिल हो जाए। दूर की सोच रखने वाले कुछ कट्टरवादी हिंदुओं की सोच है कि सत्ता भले ही हासिल न हो, मगर कम से कम भाजपा की अपनी सीटें भी बढ़ीं तो हिंदूवादी विचार पुष्ट होगा, जिसे बाद में और आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा सकता है। कई तरह के किंतु-परंतु के चलते भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ को यह फरमान जारी करना पड़ा के प्रधानमंत्री के दावेदार के मामले में बयानबाजी न करें। वे जानते हैं कि इस मुद्दे पर ज्यादा बहस हुई तो पार्टी की दिशा भटक जाएगी। आज जब कि कांग्रेस भ्रष्टाचार व महंगाई के कारण नकारे जाने की स्थिति में आ गई है तो इन्हीं मुद्दों व विकास के नाम पर वोट हासिल किए जा सकते हैं। अगर मोदी के चक्कर में हिंदूवाद बनाम धर्मनिरपेक्षवाद का मुद्दा हावी हो गया तो उसमें कांग्रेस की नाकामी गौण हो जाएगी। कदाचित राजनाथ को भी ये समझ में आता हो कि मोदी को ही आगे करना बेहतर होगा, मगर अभी से इस पर ज्यादा आरोप-प्रत्यारोप हुए तो कहीं मोदी का कचरा ही न हो जाए। उनकी उहापोह इसी से झलकती है कि एक ओर वे कुंभ में हाजिरी भर कर हिंदूवाद का सहारा लेते हैं तो दूसरी ओर हिंदूवाद के नाम पर स्वाभाविक रूप से उभर कर आए मोदी पर बयानबाजी से बचना चाहते हैं।
उधर अगर कांग्रेस की बात करें, तो वह चाहती ही ये है कि मोदी का मुद्दा गरमाया रहे, ताकि उनका भ्रष्टाचार व महंगाई का मुद्दा गायब हो जाए और देश में एक बार फिर हिंदूवाद व धर्मनिरपेक्षता के बीच धु्रवीकरण हो। दिलचस्प बात है कि हिंदूवादी ताकतें अपनी ओर से ही मोदी को सिर पर बैठा कर कांग्रेस का काम आसान कर रही हैं। कांग्रेस भी अपनी ओर से इस मुद्दे को हवा दे रही है। चंद दिग्गज कांग्रेसियों ने आरएसएस व भाजपा पर भगवा आतंकवाद के आरोप इसी कारण लगाए, ताकि वे इसी में उलझी रहें। इसका यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि कांग्रेस को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि आगामी चुनाव राहुल बनाम मोदी हो जाएगा।
कुल मिला कर मोदी को लेकर दो तरह की राय सामने आ रही है। एक तो ये कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में हैट्रिक लगा कर राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है। दूसरी से कि मोदी की स्वीकार्यता भाजपा तक ही हो सकती है, सहयोगी दलों की पसंद वे कत्तई न हो सकते। ऐसे में मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रायोजित करना भाजपा की एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अगर भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं की जिद मान ली तो उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। भाजपा इन दो तरह की मान्यताओं के बीच झूल रही हैं। आगे आगे देखें होता है क्या?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

 

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देश को हांकने लगा है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया

news channelsवे दिन लद गए, जब या तो आकाशवाणी पर देश की हलचल का पता लगता था या फिर दूसरे दिन अखबारों में। तब किसी विवादास्पद या संवेदनशील खबर के लिए लोग बीबीसी पर कान लगाते थे। देश के किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर राय कायम करने और समाज को उसका आइना दिखाने के साथ दिशा देने का काम अखबार किया करते थे, जिसमें वक्त लगता था। आजादी के आंदोलन में समाचार पत्रों की ही अहम भूमिका रही। मगर अब तो सोसासटी हो या सियासत, उसकी दशा और दिशा टीवी का छोटा पर्दा ही तय करने लगा है। और वह भी लाइव। देश में पिछले दिनों हुई प्रमुख घटनाओं ने तो जो हंगामेदार रुख अख्तियार किया, वह उसका जीता जागता सबूत है।
आपको ख्याल होगा कि टूजी व कोयला घोटाले की परत दर परत खोलने का मामला हो या भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के आंदोलन को हवा देना, नई पार्टी आप के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल को ईमानदारी का राष्ट्रीय प्रतीक बनाना हो या दिल्ली गेंग रेप की गूंज व आग को दिल्ली के बाद पूरे देश तक पहुंचाना, या फिर महिलाओं को लेकर राजनीतिक व धार्मिक नेताओं की बयानों का बारीक पोस्टमार्टम, हर गरमागरम मुद्दे का पूरा स्वाद चखाने को इलैक्ट्रॉनिक मीडिया तत्पर रहता है। देश के बड़े समाचार पत्र किसी विषय पर अपनी राय कायम कर पाएं, उससे पहले तो हर छोटे-मोटे मुद्दे पर टीवी पर गरमागरम बहस हो चुकती है। यहां तक कि जो बहस संसद में होनी चाहिए, वह भी टीवी पर ही निपट लेती है। उलटे ज्यादा गरमागरम और रोचक अंदाज में, क्योंकि वहां संसदीय सीमाओं के ख्याल की भी जरूरत नहीं है। अब तो संसद सत्र की जरूरत भी नहीं है। बिना उसके ही देश की वर्तमान व भविष्य टीवी चैनलों के न्यूज रूम में तय किया जाने लगा है। संसद से बाहर सड़क पर कानून बनाने की जिद भी टीवी के जरिए ही होती है। शायद ही कोई ऐसा दिन हो, जब कि देश के किसी मुद्दे के बाल की खाल न उधेड़ी जाती हो। हर रोज कुछ न कुछ छीलने को चाहिए। अब किसी पार्टी या नेता को अपना मन्तव्य अलग से जाहिर करने की जरूरत ही नहीं होती, खुद न्यूज चैनल वाले ही उन्हें अपने स्टूडियो में बुलवा लेते हैं। हर चैनल पर राजनीतिक पार्टियों के नेताओं, वरिष्ठ पत्रकारों व विषय विशेषज्ञों का पैनल बना हुआ है। इसी के मद्देनजर पार्टियों ने भी अपने प्रवक्ताओं को अलग-अलग चैनल के लिए नियुक्त किया हुआ है, जो रोजाना हर नए विषय पर बोलने को आतुर होते हैं। अपनी बात को बेशर्मी के साथ सही ठहराने के लिए वे ऐसे बहस करते हैं, मानों तर्क-कुतर्क के बीच कोई रेखा ही नहीं है। यदि ये कहा जाए कि अब उन्हें फुल टाइम जॉब मिल गया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोगों को भी बड़ा मजा आने लगा है, क्योंकि उन्हें सभी पक्षों की तू-तू मैं-मैं चटपटे अंदाज में लाइव देखने को मिलने लगी है। खुद ही विवादित करार दिए गए बयान विशेष पर बयान दर बयान का त्वरित सिलसिला चलाने की जिम्मेदारी भी इसी पर है। अफसोसनाक बात तो ये है कि मदारी की सी भूमिका अदा करने वाले बहस संयोजक एंकर भी लगातार आग में घी का डालने का काम करते हैं, ताकि तड़का जोर का लगे।
बेशक, इस नए दौर में टीवी की वजह से जनता में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है। अब आम आदमी अपने आस-पास से लेकर दिल्ली तक के विषयों को समझने लगा है। नतीजतन जिम्मेदार नेताओं और अधिकारियों की जवाबदेही भी कसौटी पर कसी रहती है। इस अर्थ में एक ओर जहां पारदर्शिता बढऩा लोकतंत्र के लिए सुखद प्रतीत होता है, तो दूसरी वहीं इसका दुखद पहलु ये है कि बयानों के नंगेपन का खुला तांडव मर्यादाओं को तार-तार किए दे रहा है। हालत ये हो गई है कि किसी सेलिब्रिटी के आधे-अधूरे बयान पर ही इतना हल्ला मचता है कि मानो उसके अतिरिक्त इस देश में दूसरा कोई जरूरी मुद्दा बाकी बचा ही न हो। पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन राव भागवत व आध्यात्मिक संत आशाराम बापू के महिलाओं के किसी अलग संदर्भ में दिए अदद बयान पर जो पलटवार हुए तो उनकी अब तक कमाई गई सारी प्रतिष्ठा को धूल चटा दी गई। एक मन्तव्य से ही उनके चरित्र को फ्रेम विशेष में फिट कर दिया गया। बेलाग बयानों की पराकाष्ठा यहां तक पहुंच गई कि आशाराम बापू ने टीवी चैनलों को कुत्तों की संज्ञा दे दी और खुद को हाथी बता कर उनकी परवाह न होने का ऐलान कर दिया। पारदर्शिता की ये कम पराकाष्ठा नहीं कि उसे भी उन्होंने बड़े शान से दिखाया।
विशेरू रूप से महिलाओं की मर्यादा और उनकी स्वतंत्रता, जो स्वच्छंदता चाहती है, का मुद्दा तो टीवी पर इतना छा गया कि विदेश में बैठे लोग तो यही सोचने लगे होंगे कि भारत के सारे पुरुष दकियानूसी और बलात्कार को आतुर रहने वाले हैं। तभी तो कुछ देशों के दूतावासों को अपने नागरिकों को दिल्ली में सावधान रहने की अपील जारी करनी पड़ी। आधी आबादी की पूरी नागरिकता स्थापित करने के लिए महिलाओं के विषयों पर इतनी जंग छेड़ी गई, मानो टीवी चैनलों ने महिलाओं को सारी मर्यादाएं लांघने को प्रेरित कर स्वतंत्र सत्ता स्थापित करवाने का ही ठेका ले लिया हो। इस जद्दोजहद में सांस्कृतिक मूल्यों को पुरातन व अप्रासंगिक बता कर जला कर राख किया जाने लगा। क्या मजाल जो किसी के मुंह से महिलाओं की मर्यादा व ढंग के कपड़े पहनने की बात निकल जाए, उसके कपड़े फाड़ दिए गए। जिन के भरोसे ये देश चल रहा है, उन भगवान को ही पता होगा कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए कैसा देश बनने जा रहा है। अपनी तो समझ से बाहर है। नेति नेति।
-तेजवानी गिरधर

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बसपा फिर कर रही है राजस्थान में चुनाव की तैयारी

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हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद राजस्थान के सभी बसपा विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने से बसपा को बड़ा भारी झटका लगा था, मगर अपने वोट बैंक के दम पर बसपा ने फिर से चुनाव मैदान में आने की … पढना जारी रखे

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Check out गडकरी के बयान पर इतना बवाल क्यों? « the third eye

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Check out शर्म नहीं आई पूर्व थल सेना अध्यक्ष सिंह को बयान देते? « the third eye

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राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे और संघ लॉबी में बंटी भाजपा में फिलवक्त सुलह होती नहीं दिख रही, सो एक बार इस प्रकार की खबरें आ रही हैं कि यदि भाजपा हाईकमान ने श्रीमती राजे को आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में फ्री हैंड नहीं दिया तो वे अपनी अलग क्षेत्रीय पार्टी बना सकती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली के शुक्रवार के अंक में फ्रंट पेज पर लीड स्टोरी शाया करते हुए इस बात की संभावना जताई गई है। हालांकि श्रीमती राजे ने तुरंत इसका खंडन पुरजोर शब्दों में किया है, लेकिन इससे इस आशय के संकेत मिलते हैं कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। संभव है वसुंधरा विरोधियों ने उन्हें बदनाम करने के लिए इस प्रकार की खबर छपवाई हो, जिसकी की आशंका स्वयं वसुंधरा राजे भी व्यक्त कर रही हैं। कयास ये भी लगाया जा सकता है कि यह स्टोरी वसुंधरा खेमे की उपज हो, ताकि हाईकमान स्थिति की गंभीरता को समझे।
यहां उल्लेखनीय है कि पिछली बार जब वसुंधरा राजे को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था, तब भी इस बात की आशंकाएं जाहिर की गई थीं कि विधायकों का पूर्ण बहुमत साथ होने पर भी हाईकमान की दादागिरी से तंग आ कर वे नई पार्टी का गठन कर सकती हैं। वे इतनी सक्षम भी हैं। मगर एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली रहने के बाद जब उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया तो बात आई गई हो गई। पिछले दिनों जब पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया मेवाड़ में रथयात्रा निकालना चाहते थे, तब भी बड़ा भारी बवाल हुआ और वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे मंगवा कर हाईकमान पर दबाव बनाया था। वह विवाद आज भी नहीं थमा है। अब भी कटारिया व पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी आए दिन यही बयान दे रहे हैं कि पार्टी ने किसी नेता को मुख्यमंत्री पद के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनाव लडऩे का निर्णय नहीं किया है, जबकि पार्टी की राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी सहित अन्य नेता बार-बार कह रहे हैं कि राजस्थान की भावी मुख्यमंत्री वसुंधरा ही होंगी। इन्हीं बयानबाजियों के बीच टाइम्स ऑफ इंडिया की ताजा खबर ने एक बार फिर भाजपा में हलचल पैदा कर दी है। जयपुर में दिनभर चली सरगरमी के बाद आखिरकार वसुंधरा राजे को इस खबर का खंडन जारी करना पड़ा।
आइये, देखिए टाइम्स ऑफ इंडिया की स्टोरी में क्या-क्या कहा गया है। पेश है हूबहू रिपोर्ट:-
Raje to break away from BJP to form own party?
Miffed Over High Command Not Giving Free Hand
Akhilesh Kumar Singh TNN

Jaipur: Even as BJP battles instability in its Karnataka unit along with former CM B S Yeddyurappa threatening to walk out, a bombshell seems to be waiting to explode for the party in Rajasthan, with Vasundhara Raje on the verge of revolting against party’s central leadership. Raje, former Rajasthan CM and currently the leader of opposition in the state assembly, is considering walking away with a big chunk of “loyalists” to float her own regional party before assembly polls in the state — due in December next year — if the leadership does not recognize her pre-eminence in the state unit. Raje has demanded a say in the appointment of state chief, and an upper hand in the distribution of party tickets for the assembly polls.
Raje is widely acknowledged to be the only leader in the BJP with a pan-state appeal: Something which defies Rajasthan’s reputation as a conservative state and has baffled political observers and sociologists alike.
It is also recognized that sabotage was the chief reason why she failed to pull off a win in the last assembly election despite coming close to pulling off one in the face of anti-incumbency.
The grouse of Raje and her supporters is that the appreciation of her being the best bet for the party is not reflected in way central leadership has been conducting its affairs, insisting on parity in the party between her and the “leaders who have no influence outside their assembly constituencies”.
The indulgence of indiscipline has encouraged disproportionate ambitions, dealing a blow to the authority of the leadership. “Devi Singh Bhati (Kolayat MLA) has launched an independent campaign and challenged the party leadership to stop his campaign. Gulab Chand Kataria is already moving places. There is no discipline in the party and senior leaders are shy of projecting Vasundharaj ias a party leader. That leaves her with no option but to think about options beyond BJP,” said a Raje loyalist.
ROYAL REBEL
Vasundhara Raje was chief minister of Rajasthan from December 8, 2003 to December 11, 2008
First woman chief minister of the state
Initiated into politics by her mother Vijay Raje Scindia in 1982
Won 4 consecutive Lok Sabha polls from Jhalwar from 1989 onwards
Then BJP party president Rajnath Singh forced her to resign as leader of opposition in Rajasthan in Oct 2009
Reinstated as leader of opposition in state after Gadkari took over as BJP’s national president
Recently threatened to quit party over Gulab Chand Kataria’s anti-corruption campaign, forcing Kataraia to shelve his plan
Sources in Raje camp claim 70 of 79 BJP MLAs have expressed their support for her 70 out of 79 MLAs may be backing Raje
Jaipur: Former chief minister Vasundhara Raje is planning to break away from the BJP and float her own regional party before the assembly polls. “Madam (Raje) was aghast at the national leaders’ indifference towards her repeated demand for a free hand in the run-up to assembly polls in the state,” BJP MLAs aligned with Raje told TOI.
A leader from the Raje camp claimed that 70 out of the 79 MLAs have expressed their support to Raje, and several other party leaders are also willing to follow suit. While efforts to contact Raje proved futile, her trusted lieutenant and party chief whip in the state assembly, Rajendra Singh Rathore also refused to comment on the issue. “I have no information in this regard,” he said.
Raje camp insiders said that they were in touch with a few independent legislators, including the six “turncoat” MLAs elected from the BSP who went on to join the Congress, providing a majority to the Ashok Gehlot government.
Raje is also said to be mulling over an alliance with the BSP as that will not only strengthen them in eastern Rajasthan but also fetch a sizeable number of Muslim votes.
The BSP did well in eastern Rajasthan during the 2008 assembly polls in the state as six MLAs were elected and several of its candidates finished runners-up.
The trouble in Rajasthan unit spells serious concern for the party. BJP is hoping for a good tally of Lok Sabha seats from the state, but the prospect could suffer a setback if Raje heeds her supporters to go her separate way.
Raje could be the latest addition to a long list of regional satraps of the BJP, who have had a falling out with the national leadership. Yeddyurappa is also toying with the idea of floating a regional party as the high command has refused to reinstate him as chief minister of Karnataka. The party has still not recovered from the loss caused by the exit of Kalyan Singh in Uttar Pradesh and Babulal Marandi has emerged a strong regional force in Jharkhand after parting ways with the BJP.
The trend of satraps launching their own outfits is also seen as fallout of the vanishing Hindutva fervour and BJP’s failure to find a replacement for the charismatic Atal Bihari Vajpayee.
After attending the recent assembly session in the state, Raje is camping in New Delhi. She met with several senior party leaders in the national capital to convince them about giving her a free hand to take final calls about the assembly polls. It was learnt that Raje also asked for state party chief Arun Chaturvedi to be substituted by a colleague of her choice, and rejection of the candidature of Gulab Chand Kataria, her detractor for the post.
Senior leaders have rejected her demands and suggested that they will let her lead the party but no “free hand” will be encouraged as unanimity ought to be maintained among senior state leaders on all major issues.
Kataria is a known Raje baiter and has already tried to open a parallel front as he planned a “rath yatra” against corruption in the beginning of this year. Raje vehemently opposed Kataria’s proposed campaign and that latter had to cancel the plan.
Reports suggest that Kataria, this time around, has got support of other senior state leaders including Ghanshyam Tiwadi (deputy leader of opposition), Arun Chaturvedi (current state president), Lalit Chaturvedi and Narpat Singh Rajvi (son-in-law of Bhairon Singh Shekhawat). These leaders have reportedly maintained a concerted pressure on the BJP top brass to make sure that Raje was not allowed to “dictate” her will and that other leaders are also given the due consideration on party matters.
अब देखिए, श्रीमती राजे की ओर से जारी खंडन का हूबहू मजमून:-
नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुन्धरा राजे का बयान
पार्टी के साथ मेरे और मेरे परिवार के रिश्तों पर मुझे कोई स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं है। ये तो विरोधी दलों और कुछ स्वार्थी लोगों का राजनीतिक षडय़ंत्र है जो मेरे खिलाफ मीडिया में असत्य, भ्रामक और आधारहीन खबरें छपवाकर मेरी छवि को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। राजस्थान की जनता का प्यार और आशीर्वाद मेरे साथ है। इसलिये ऐसी खबरों से मैं विचलित होने वाली नहीं हूं और न ही ऐसी खबरों से भाजपा जैसी मजबूत पार्टी टूटने वाली है।
यह भी दुर्भाग्य की बात है कि टाइम्स ऑफ इण्डिया जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने ऐसे लोगों के साथ मिलकर यह खबर प्रकाशित की है जो कि अवमाननापूर्ण है।
( वसुन्धरा राजे )
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

Posted on by eyethe3rd | टिप्पणी करे